Hindu Marriage Verdict: 'हिंदू विवाह कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं', इलाहाबाद HC ने सुनाया अहम फैसला
Hindu Marriage Verdict: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा है कि हिंदू विवाह को अनुबंध यानी कॉन्ट्रैक्ट की तरह नहीं माना जा सकता। इसे भंग केवल सीमित परिस्थितियों में किया जा सकता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह एक पवित्र बंधन है और इसे कानूनी रूप से भंग करने के लिए दोनों पक्षों की सहमति पर आधारित साक्ष्य की आवश्यकता होती है।
क्या है पूरा मामला?
इस फैसले का संबंध एक मामले से है, जिसमें न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने एक पत्नी की अपील पर निर्णय सुनाया। पत्नी ने अपने विवाह के विघटन के खिलाफ अपील की थी, जिसमें अदालत ने यह स्पष्ट किया कि तलाक केवल आपसी सहमति से ही संभव है, और इस सहमति की वैधता अंतिम आदेश तक बनी रहनी चाहिए।
न्यायालय ने कहा कि यदि कोई पक्ष अंतिम निर्णय से पहले अपनी सहमति वापस ले लेता है, तो प्रारंभिक सहमति के आधार पर तलाक की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। न्यायालय ने इसे न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ मानते हुए कहा कि अपीलकर्ता को उसकी पूर्व सहमति का पालन करने के लिए मजबूर करना न्याय का उपहास होगा, विशेषकर जब यह सहमति तीन साल बाद वापस ली गई हो।
केस का बैकग्राउंड
यह अपील बुलंदशहर के अतिरिक्त जिला न्यायाधीश द्वारा 2011 में दिए गए फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। इस फैसले में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने महिला के पति द्वारा दायर की गई तलाक की याचिका को मंजूरी दी थी। दंपति की शादी 2006 में हुई थी, लेकिन महिला ने 2007 में अपने पति को छोड़ दिया। पति ने 2008 में तलाक के लिए अर्जी दी, और पत्नी ने शुरू में अलग रहने के लिए सहमति दी थी।
हालांकि, कार्यवाही के दौरान महिला ने अपना रुख बदल दिया और तलाक को चुनौती दी, जिसके परिणामस्वरूप मध्यस्थता के प्रयास विफल हो गए। दंपति ने बाद में सुलह कर ली, दो बच्चे हुए और वे एक साथ रहने लगे, लेकिन तलाक की याचिका को पहले के बयानों के आधार पर मंजूर कर लिया गया।
अदालत का निर्णय
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले में तलाक की याचिका को पहले के बयानों के आधार पर मंजूर करने के निर्णय को पलट दिया। अदालत ने कहा कि तलाक के लिए सहमति अंतिम आदेश के समय तक वैध रहनी चाहिए, और यदि सहमति वापस ली जाती है, तो तलाक की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। इस निर्णय ने हिंदू विवाह की पवित्रता और कानूनी प्रक्रिया के प्रति अदालत की संवेदनशीलता को दर्शाया है।
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