Baran: अहंकारी दशानन दहन नहीं कराने पर अड़ा... लोगों ने लाठियों से पीट-पीटकर किया रावण का वध!
Mitti ka Ravan:(हर्षिल सक्सेना)। क्या आपने कभी सुना है कि रावण को जलाने की बजाय लाठियों से पीट-पीटकर खत्म किया जाता है? बारां जिले के जलवाड़ा कस्बे में विजयादशमी का पर्व एक अनोखी और चौंकाने वाली परंपरा के साथ मनाया जाता है। यहां मिट्टी से बना रावण(Mitti ka Ravan), जो प्रतीक है बुराई का, को 50 सालों से लाठियों के प्रहार से समाप्त किया जाता है। यह परंपरा न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसके पीछे छिपे रहस्यों की खोज आपको एक अद्भुत सांस्कृतिक यात्रा पर ले जाएगी। जब गांव वाले एकत्रित होते हैं, तो माहौल में जोश और श्रद्धा का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। जानें, क्या है इस अनोखी परंपरा का राज और क्यों यह हर साल बनती है चर्चा का विषय!
मिट्टी का रावण: रियासतकाल से चली आ रही परंपरा
जलवाड़ा में रियासतकाल से मिट्टी के रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण के पुतलों को बनाने की परंपरा है। दशहरे पर बरनी नदी के पास रामबाग में मिट्टी के रावण का पुतला तैयार किया जाता है। इसके बाद कस्बे के भगवान गोविन्द देव मंदिर से ग्रामीण देवविमान लेकर कार्यक्रम स्थल पर पहुंचते हैं, जहां भगवान गोविन्द देव की आरती की जाती है।
अहंकार का अंत: लाठियों से नष्ट होता है मिट्टी का रावण
इस अनूठी परंपरा में मिट्टी से बने रावण का चेहरा उकेरा जाता है और फिर ग्रामीण उसे लाठियों से पीट-पीटकर नष्ट करते हैं। ग्रामीणों का मानना है कि अहंकार को पीट-पीटकर ही समाप्त किया जा सकता है, और यही इस परंपरा का मुख्य संदेश है। बुराई पर अच्छाई की जीत के इस प्रतीक के बाद, लोग रावण के पुतले की मिट्टी अपने घर लेकर जाते हैं, जिसे पूजा स्थान, धान की कोठरी और तिजोरी में रखा जाता है। मान्यता है कि इससे धन-धान्य में वृद्धि होती है।
पर्यावरण के प्रति जागरूकता: विस्फोटक सामग्री का उपयोग नहीं
ग्रामीणों का कहना है कि अन्य स्थानों पर रावण दहन में विस्फोटक सामग्री और लकड़ियों का उपयोग होता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इसके विपरीत, जलवाड़ा की यह परंपरा पर्यावरण को सुरक्षित रखने का एक माध्यम भी है, क्योंकि मिट्टी का उपयोग प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाता।
पुतला बनाने वाले कारीगरों की विदाई, परंपरा कायम
मिट्टी के रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण के पुतले बनाने वाले कारीगर अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी बनाई यह परंपरा आज भी जलवाड़ा में जीवित है। ग्रामीण पीढ़ियों से चली आ रही इस परंपरा को संजोकर रखते हैं, जो प्रकृति और परंपरा दोनों को साथ लेकर चलने का संदेश देती है।
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