Supreme Court Verdict: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, न्यायिक सेवा में दिव्यांगों को मिलेगा अवसर
Supreme Court Verdict: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा (भर्ती और सेवा की शर्तें) नियम, 1994 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया, जो दृष्टिहीन और कम दृष्टि वाले उम्मीदवारों को राज्य की न्यायिक सेवा में शामिल होने से रोकता है।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने कहा, "अब समय आ गया है कि दिव्यांगता आधारित भेदभाव के खिलाफ अधिकार को मौलिक अधिकार के समान दर्जा दिया जाए, ताकि किसी भी उम्मीदवार को केवल उनकी दिव्यांगता के आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया जाए।" शीर्ष अदालत यह मामला उस पत्र के आधार पर देख रही थी, जिसे जनवरी 2024 में एक दृष्टिहीन उम्मीदवार की मां ने भेजा था, जो मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा में शामिल होना चाहती थी।
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय को उम्मीदवार को परीक्षा में बैठने की अनुमति देने का निर्देश दिया था, लेकिन मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियम, 1994 के नियम 6ए की वैधता पर विचार लंबित था, जिसे अब हटा दिया गया है।
संविधान में सबको समान अधिकार
122 पन्नों के इस फैसले में, जिसे न्यायमूर्ति महादेवन ने लिखा, कहा गया कि "उचित समायोजन का सिद्धांत, जो अंतरराष्ट्रीय संधियों, स्थापित न्यायशास्त्र और दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 में निहित है, यह अनिवार्य करता है कि दिव्यांगजन को उनकी योग्यता का आकलन करने से पहले आवश्यक सुविधाएं प्रदान की जाएं।"
अदालत ने कहा, "किसी भी प्रकार का परोक्ष भेदभाव, जो दिव्यांगजनों को कड़े मानकों या प्रक्रियात्मक बाधाओं के माध्यम से बाहर कर देता है, उसमें हस्तक्षेप किया जाना चाहिए ताकि वास्तविक समानता सुनिश्चित की जा सके।" न्यायमूर्ति महादेवन ने कहा, "भारतीय संविधान सक्षम और दिव्यांग नागरिकों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता है और सभी को समान अवसर प्रदान करने की बात करता है।"
अदालत ने स्पष्ट किया कि संवैधानिक अदालतों का कर्तव्य है कि वे दिव्यांगजनों को ऐसा वातावरण और सुविधाएं प्रदान करें, जिससे वे बिना किसी भेदभाव के गरिमा के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सकें और अपनी पूरी क्षमता का एहसास कर सकें।
नियम 6A को क्यों किया गया रद्द?
मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियमों में 2018 में नियम 6ए जोड़ा गया था, जो राज्य सरकार को मिले एक चिकित्सा मत पर आधारित था, जिसमें कहा गया था कि दृष्टिहीन या नेत्रहीन व्यक्ति न्यायिक कार्य नहीं कर सकते। अदालत ने इस नियम को अस्वीकार्य बताते हुए कहा कि "एक चिकित्सक की रिपोर्ट पर आधारित यह नियम दिव्यांगता कानून की उभरती हुई न्यायिक अवधारणा के खिलाफ है और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।"
अदालत ने यह भी तर्क दिया कि जब कोई दृष्टिहीन व्यक्ति कानून की पढ़ाई कर सकता है, तो उसे अभ्यास करने और सार्वजनिक या निजी क्षेत्र में नियुक्ति पाने का समान अवसर भी मिलना चाहिए।
दिव्यांगों के लिए अलग मेरिट लिस्ट अनिवार्य
अदालत ने आदेश दिया कि प्रत्येक श्रेणी, जिसमें दिव्यांगजन भी शामिल हैं, उनके लिए अलग-अलग कट-ऑफ अंक तय किए जाएं। अदालत ने कहा, "कट-ऑफ अंक घोषित न करने से पारदर्शिता प्रभावित होती है और अस्पष्टता उत्पन्न होती है, जिससे दिव्यांग उम्मीदवारों को अन्य श्रेणी के उम्मीदवारों के साथ असमान शर्तों पर प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।" कोर्ट ने कहा, "हम संबंधित अधिकारियों को निर्देश देते हैं कि वे प्रत्येक चरण में दिव्यांग श्रेणी के लिए अलग कट-ऑफ अंक घोषित करें और चयन प्रक्रिया को उसके अनुसार आगे बढ़ाएं।"
मध्य प्रदेश और राजस्थान उच्च न्यायालय को आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश और राजस्थान उच्च न्यायालय को निर्देश दिया कि वे न्यायिक अधिकारियों की भर्ती प्रक्रिया को अदालत के निर्देशों के अनुसार आगे बढ़ाएं और इसे तीन महीने के भीतर पूरा करें।
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